आदमियों की भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ,
कई चेहरों से मिलकर भी अजनबी सा दिखता हूँ.
पास होकर भी सभी कहाँ अपने होते हैं,
मीठी नींद में देखे हुए सपने कहाँ सच्चे होते हैं.
मुस्कुराते हुए चला जाता हूँ.
शोलों को सीने में दफनाये जाता हूँ.
मायूसी का आलम यूं है
ख़ामोशी का डर यूं हैं.
आज भी तन्हाई अच्छी लगती हैं
दर्द होकर भी सच्ची लगती हैं.
बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
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