शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

भविष्य

क्या होगा भविष्य उन शहरों का,
जो भरे पड़े हैं लोगों के जंगलों से.

सुन्दर पर्वत अब उजड़ी हुयी मांगों की तरह दिखते हैं,
कईं लोग कांप रहें हैं उनकी जड़े बेखौफ होकर.

गन्दी नालियां, गंदे रास्ते अब बन गए हैं कूड़े,
झुग्गियों से निजात कब मिलेगी यही सोच रहें हैं कीड़े.

पानी के लिए अब भी लोग तरस रहें हैं ,
एक एक बूंद के लोग एक दुसरे पे बरस रहें हैं.

आज भी लोग ठीक से सो नहीं पाते.
डर के मारे मकान से निकल नहीं पाते.

सोने के लिए बिस्तर भी कम पड़ता हैं,
खाने के लिए अनाज भी कम पड़ता हैं.

उनकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं हैं,
जाये तो कहाँ जाएँ बताने वाला कोई नहीं हैं.

ऊपर वाला भी आजकल सुनता हैं उनकी ही जो मोटा चढ़ावा चढाते हैं.
गरीबों की सुनने के लिए उसके पास वक्त नहीं हैं, वो कहाँ भाव बढ़ाते हैं.

पानी से भी सस्ता दूध ,किसान कहाँ बोते हैं,
माँ के बिना बच्चे भी लोरी सिवा सोते हैं.

नेता, गुंडों की सब मिली जुली हैं,
ज़माने की आगे किसकी चली हैं.