रविवार, 21 नवंबर 2010

तुम

कितने दिनों के बाद मिली हो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

अजीब चेहरों से उलझे हुए
सवालों के सायें से लिपटे हुए
अनगिनत नजरों को तुम
अपनीसी लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

हसीं पलों में हर एक चाहता था
उन लम्हों की तुम साजदार बनो
अपनी खुबसूरत सी हसी बिखेरकर
सब को आबाद करो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

परेशानी किसको नहीं होती?
लेकिन तुम्हारी जुल्फों के साए में
चमकती धुप भी
छाँव की तरह लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

जिन्दगी के मायने बदल गए है
जीने के अंदाज़ भी कुछ अलग लगते है
इस हैरान सी वीरानी में
एक साथ भी जरुरी है
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?