देखो महलों में रहनेवालों
हमारे तरफ भी जरा एक नजर उठाके देख लो
रहते हो तुम उस जहाँ में,
हमारे लिए भी कोई आसरा तो दो.
घर का मतलब ही क्या हैं हमारे लिए,
चार दिवारों के ऊपर एक टुटी फुटी छत,
बारिश के समय में होगा एक आसरा,
लगी ठण्ड तो होगा नंगे बदन को ढकने का सहारा.
आप के लिए घर पैसे जमा करने एक व्यापार हैं,
मिला तो सही नहीं मिला तो कई कारोबार हैं,
हमारे लिए वो जिन्दगी भर की पूँजी हैं,
पल पल मरकर जिने के लिए बनाया ताजमहल.
दर दर की ठोकरे खाकर,
हमने बनाया हैं आशियाँ,
हम ही जानते हैं घर का मतलब क्या हैं,
आप के लिए कुछ होगा हमारे लिए तो मंदिर है.
आज भी कईयों के सपने,
सच नहीं होते,
कई बार तो लगता हैं जिते ही हैं,
एक मकान के लिए.
कई करोड़ों के लिए ये,
आज भी एक सुहाना सपना है,
हर एक को लगता हैं,
हो न हो मकान अपना हैं.
कहते हैं मकान उजड़ी हुयी दुनिया बसाता हैं,
दुनिया एक घर नहीं तो और क्या हैं,
फिर भी लोग आज एक मकान के लिए दरबदर भटकते हैं,
मारे मारे दो गज जमीं के लिए अपना सर पटकते है.
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010
सुबह
सुबह होती है और शुरुआत होती है,
जिंदगी के नये सफ़र की.
भोर की पहली किरण निकलते ही ,
वो मंदिरों से आती हुई शहनाई की आवाजें,
मस्जिदों से आती हुई अजान की पुकार,
नदी के किनारे स्नान करते हुए लोगों की प्रार्थनाएं.
बच्चों की स्कूल के लिए चल रही तय्यारी,
दूधवाला और पेपरवाला भी दौड़ रहे है,
हर को पहुंचना है सही समय पे,
किसको समय है दुसरे की तरफ देखने के लिए.
सुबह का उगता हुआ सूरज,
सबको सिखाता हैं जिने का अंदाज़,
कल क्या हुआ ये न सोचो,
आज क्या होगा इसके लिए तैयार रहो.
दिन ढलने से आई हुई थकान,
सुबह के ठंडी हवाओं की ताजगी,
देती हैं उर्जा फिरसे कम करने की,
ये सुबह बार बार देती हैं जनम.
हर सुबह नयी लगती है,
बिलकुल दुल्हन की तरह,
व्याकुल अपने हमसफ़र को मिलने को,
और नए घर को फिरसे सँवारने को.
सुबह आये तो महक उठे समां,
फुल खिल उठे और कोयल चहकने लगे,
वो सुनसान सा जंगल भी,
किसी शादी के मंडुए की तरह लगे.
जिंदगी के नये सफ़र की.
भोर की पहली किरण निकलते ही ,
वो मंदिरों से आती हुई शहनाई की आवाजें,
मस्जिदों से आती हुई अजान की पुकार,
नदी के किनारे स्नान करते हुए लोगों की प्रार्थनाएं.
बच्चों की स्कूल के लिए चल रही तय्यारी,
दूधवाला और पेपरवाला भी दौड़ रहे है,
हर को पहुंचना है सही समय पे,
किसको समय है दुसरे की तरफ देखने के लिए.
सुबह का उगता हुआ सूरज,
सबको सिखाता हैं जिने का अंदाज़,
कल क्या हुआ ये न सोचो,
आज क्या होगा इसके लिए तैयार रहो.
दिन ढलने से आई हुई थकान,
सुबह के ठंडी हवाओं की ताजगी,
देती हैं उर्जा फिरसे कम करने की,
ये सुबह बार बार देती हैं जनम.
हर सुबह नयी लगती है,
बिलकुल दुल्हन की तरह,
व्याकुल अपने हमसफ़र को मिलने को,
और नए घर को फिरसे सँवारने को.
सुबह आये तो महक उठे समां,
फुल खिल उठे और कोयल चहकने लगे,
वो सुनसान सा जंगल भी,
किसी शादी के मंडुए की तरह लगे.
बुधवार, 27 अक्तूबर 2010
रिश्तें
कुछ रिश्तों को गन्दी नजरों से देखा जाता हैं,
क्या वो कानून अब भी अँधा बना हुआ हैं?
जात पात से परे होकर हम आगे तो जा रहें हैं,
लेकिन अभी भी मा बहनों को देखने का नजरिया वही हैं,
क्यों उनके दर्द हम पहचान नहीं पाते हैं?,
क्यों उनकी भावना हम समझ नहीं पाते हैं?
क्या अभी भी वो एक खिलौना हैं,
हमारी जिन्दगी को खुश रखने का?
क्या उन्हें अपना हक़ दिलाने में,
हमारी असल में कसौटी हैं?
सच तो ये हैं के हम ही उनके रास्ते के कांटे हैं,
हम खुद नहीं चाहते के वो आगे आयें,
हम भी वही सामंतवादी प्रतिष्ठा के रक्षक हैं,
जो खुद नहीं चाहते कोई भी हमसे आगे जाएँ.
जब तक हम उन्हें अपना अधिकार नहीं बाटेंगे,
हम उन्हें सही मायने में अपना हमसफ़र नहीं बनायेंगे,
हमें कोई अधिकार नहीं उन्हें गूंगी गुड़ियाँ बनाने का,
उन्हें पल पल यातना दिलाने का.
सोचा था ये पुरुष प्रजाति नहीं देगी ,
तो कानून तो दिलाएगा उन्हें अधिकार,
अपने आँखों पे लगी काली पट्टी उसने हटाई नहीं हैं,
कानून भी पुरुषों ने ही बनाया होगा?
गंदे शब्द कितनी भी कहें होंगे,
काले धब्बे कितने ही लगाने की कोशिश की होगी,
वो आज भी गंगा की तरह पवित्र हैं,
जरुरत हैं उसका जल ऐसे विकृतियों को पिलाने का.
क्या वो कानून अब भी अँधा बना हुआ हैं?
जात पात से परे होकर हम आगे तो जा रहें हैं,
लेकिन अभी भी मा बहनों को देखने का नजरिया वही हैं,
क्यों उनके दर्द हम पहचान नहीं पाते हैं?,
क्यों उनकी भावना हम समझ नहीं पाते हैं?
क्या अभी भी वो एक खिलौना हैं,
हमारी जिन्दगी को खुश रखने का?
क्या उन्हें अपना हक़ दिलाने में,
हमारी असल में कसौटी हैं?
सच तो ये हैं के हम ही उनके रास्ते के कांटे हैं,
हम खुद नहीं चाहते के वो आगे आयें,
हम भी वही सामंतवादी प्रतिष्ठा के रक्षक हैं,
जो खुद नहीं चाहते कोई भी हमसे आगे जाएँ.
जब तक हम उन्हें अपना अधिकार नहीं बाटेंगे,
हम उन्हें सही मायने में अपना हमसफ़र नहीं बनायेंगे,
हमें कोई अधिकार नहीं उन्हें गूंगी गुड़ियाँ बनाने का,
उन्हें पल पल यातना दिलाने का.
सोचा था ये पुरुष प्रजाति नहीं देगी ,
तो कानून तो दिलाएगा उन्हें अधिकार,
अपने आँखों पे लगी काली पट्टी उसने हटाई नहीं हैं,
कानून भी पुरुषों ने ही बनाया होगा?
गंदे शब्द कितनी भी कहें होंगे,
काले धब्बे कितने ही लगाने की कोशिश की होगी,
वो आज भी गंगा की तरह पवित्र हैं,
जरुरत हैं उसका जल ऐसे विकृतियों को पिलाने का.
शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010
भविष्य
क्या होगा भविष्य उन शहरों का,
जो भरे पड़े हैं लोगों के जंगलों से.
सुन्दर पर्वत अब उजड़ी हुयी मांगों की तरह दिखते हैं,
कईं लोग कांप रहें हैं उनकी जड़े बेखौफ होकर.
गन्दी नालियां, गंदे रास्ते अब बन गए हैं कूड़े,
झुग्गियों से निजात कब मिलेगी यही सोच रहें हैं कीड़े.
पानी के लिए अब भी लोग तरस रहें हैं ,
एक एक बूंद के लोग एक दुसरे पे बरस रहें हैं.
आज भी लोग ठीक से सो नहीं पाते.
डर के मारे मकान से निकल नहीं पाते.
सोने के लिए बिस्तर भी कम पड़ता हैं,
खाने के लिए अनाज भी कम पड़ता हैं.
उनकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं हैं,
जाये तो कहाँ जाएँ बताने वाला कोई नहीं हैं.
ऊपर वाला भी आजकल सुनता हैं उनकी ही जो मोटा चढ़ावा चढाते हैं.
गरीबों की सुनने के लिए उसके पास वक्त नहीं हैं, वो कहाँ भाव बढ़ाते हैं.
पानी से भी सस्ता दूध ,किसान कहाँ बोते हैं,
माँ के बिना बच्चे भी लोरी सिवा सोते हैं.
नेता, गुंडों की सब मिली जुली हैं,
ज़माने की आगे किसकी चली हैं.
जो भरे पड़े हैं लोगों के जंगलों से.
सुन्दर पर्वत अब उजड़ी हुयी मांगों की तरह दिखते हैं,
कईं लोग कांप रहें हैं उनकी जड़े बेखौफ होकर.
गन्दी नालियां, गंदे रास्ते अब बन गए हैं कूड़े,
झुग्गियों से निजात कब मिलेगी यही सोच रहें हैं कीड़े.
पानी के लिए अब भी लोग तरस रहें हैं ,
एक एक बूंद के लोग एक दुसरे पे बरस रहें हैं.
आज भी लोग ठीक से सो नहीं पाते.
डर के मारे मकान से निकल नहीं पाते.
सोने के लिए बिस्तर भी कम पड़ता हैं,
खाने के लिए अनाज भी कम पड़ता हैं.
उनकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं हैं,
जाये तो कहाँ जाएँ बताने वाला कोई नहीं हैं.
ऊपर वाला भी आजकल सुनता हैं उनकी ही जो मोटा चढ़ावा चढाते हैं.
गरीबों की सुनने के लिए उसके पास वक्त नहीं हैं, वो कहाँ भाव बढ़ाते हैं.
पानी से भी सस्ता दूध ,किसान कहाँ बोते हैं,
माँ के बिना बच्चे भी लोरी सिवा सोते हैं.
नेता, गुंडों की सब मिली जुली हैं,
ज़माने की आगे किसकी चली हैं.
बुधवार, 20 अक्तूबर 2010
अधूरापन
जब भी चाँद को देखते हैं,
अधूरापन नजर आता हैं हमें.
लावारिस सी भटक रही जिन्दगी,
खाली हाथ कटोरा लेके घूमते भिखारी,
और सुनसान सी गली में बंद पड़ा कमरा,
सभी एक जैसे दिखते हैं.
ऊजड़े गाँव, बंजर खेत,
बीमार माँ बाप और पापी पेट,
किसको सुनाये अपना हाल,
रोटी के लिए फिरता मायाजाल.
क्या आदमी आपने आप को पहचान पायेगा,
इन सारी खोखलेपन से निजात पायेगा,
फटे हुए छतों से अब बेबस चाँद नजर आता हैं,
झडे हुए पत्तों से शजर अधुरा सा नजर आता हैं.
अधूरापन नजर आता हैं हमें.
लावारिस सी भटक रही जिन्दगी,
खाली हाथ कटोरा लेके घूमते भिखारी,
और सुनसान सी गली में बंद पड़ा कमरा,
सभी एक जैसे दिखते हैं.
ऊजड़े गाँव, बंजर खेत,
बीमार माँ बाप और पापी पेट,
किसको सुनाये अपना हाल,
रोटी के लिए फिरता मायाजाल.
क्या आदमी आपने आप को पहचान पायेगा,
इन सारी खोखलेपन से निजात पायेगा,
फटे हुए छतों से अब बेबस चाँद नजर आता हैं,
झडे हुए पत्तों से शजर अधुरा सा नजर आता हैं.
मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010
अँधेरा
अँधेरे से यूँ डर लगता हैं,
कहीं खो न जाऊं उन कालकोठरी में.
कितना अजीबसा लगता हैं ,
जो सूरज की चमकती हुयी,
धुप से भी न घबराता था,
आज लगता हैं उन्ही में सिमट न जाऊं मैं.
रात कांटने को दौडती हैं,
टिमटिमाते तारे भी अब मुझे नजर नहीं आते,
सन्नाटे भी अब चिरके निकलते हैं मुझसे,
चन्द्रमा की शीतल छाँव गर्मी को हैं जगाती.
दूर तलक कोई दीप नजर नहीं आता,
रास्ते भी अब सुनसान से नजर आते हैं,
जैसे ही यूँ अंधकार बढ़ता जाता हैं,
पैर खिसकते नजर आते हैं.
अँधेरे का भेद कौन पढता हैं,
उजालों के सच कौन मानता हैं,
सब झूठ हैं उसी पंछी की तरह,
पिंजरे से उड़कर वापस लौटने की तरह.
कहीं खो न जाऊं उन कालकोठरी में.
कितना अजीबसा लगता हैं ,
जो सूरज की चमकती हुयी,
धुप से भी न घबराता था,
आज लगता हैं उन्ही में सिमट न जाऊं मैं.
रात कांटने को दौडती हैं,
टिमटिमाते तारे भी अब मुझे नजर नहीं आते,
सन्नाटे भी अब चिरके निकलते हैं मुझसे,
चन्द्रमा की शीतल छाँव गर्मी को हैं जगाती.
दूर तलक कोई दीप नजर नहीं आता,
रास्ते भी अब सुनसान से नजर आते हैं,
जैसे ही यूँ अंधकार बढ़ता जाता हैं,
पैर खिसकते नजर आते हैं.
अँधेरे का भेद कौन पढता हैं,
उजालों के सच कौन मानता हैं,
सब झूठ हैं उसी पंछी की तरह,
पिंजरे से उड़कर वापस लौटने की तरह.
शिकवा
जिस बात का डर था वही हुआ,
हम उनसे बिछड़े आखिर वही हुआ .
कई बार खयाल आया की मुड़ जाएँ,
दुख तो जरुर होगा की रुक जाएँ,
मगर दिल था के मानता नहीं था,
अब जाके मान गया लेकिन क्या हुआ.
अब फिरसे वही होगा,
न नींद होगी न चैन होगा,
अब किसे बताएँगे दिल का हाल,
अब रंज होगा न सुकुन होगा.
जिन्दगी को जो पसंद हैं वही तो होता हैं,
कहाँ आखिर सोचा वो सही होता हैं,
देखते हैं जिन्दगी कहाँ ले जाती हैं हमें,
याफिर आखिर कफ़न में खत्म होता हैं
किस किस से नाराज हो जाएँ,
कोई एक कारण हो तो बताएं,
अब कोई गम नहीं हमें,
खुदा सहने की ताकत दे हमें.
हम उनसे बिछड़े आखिर वही हुआ .
कई बार खयाल आया की मुड़ जाएँ,
दुख तो जरुर होगा की रुक जाएँ,
मगर दिल था के मानता नहीं था,
अब जाके मान गया लेकिन क्या हुआ.
अब फिरसे वही होगा,
न नींद होगी न चैन होगा,
अब किसे बताएँगे दिल का हाल,
अब रंज होगा न सुकुन होगा.
जिन्दगी को जो पसंद हैं वही तो होता हैं,
कहाँ आखिर सोचा वो सही होता हैं,
देखते हैं जिन्दगी कहाँ ले जाती हैं हमें,
याफिर आखिर कफ़न में खत्म होता हैं
किस किस से नाराज हो जाएँ,
कोई एक कारण हो तो बताएं,
अब कोई गम नहीं हमें,
खुदा सहने की ताकत दे हमें.
गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010
जिस्म
चांदनी रात के उजालो में,
तेरा जिस्म दुधिया दिखता हैं।
तेरी झुकी नजर,
चिर के ले गयी लफ्ते जिगर,
खुले बालों ने जादू किया,
मदहोशी नींद उडाती हैं।
होश का आलम न पुछो,
मस्ती का आलम न पुछो,
जजबातों ने मचाया हैं कोहराम,
महक भी अब संदल सी लगती हैं।
हसीं समां हैं जवान है रात,
अब न हम हैं न हमारे जजबात,
दमकते हुए गुलाबी रुखसार,
अब दुनिया मचलती लगती हैं।
तेरा जिस्म दुधिया दिखता हैं।
तेरी झुकी नजर,
चिर के ले गयी लफ्ते जिगर,
खुले बालों ने जादू किया,
मदहोशी नींद उडाती हैं।
होश का आलम न पुछो,
मस्ती का आलम न पुछो,
जजबातों ने मचाया हैं कोहराम,
महक भी अब संदल सी लगती हैं।
हसीं समां हैं जवान है रात,
अब न हम हैं न हमारे जजबात,
दमकते हुए गुलाबी रुखसार,
अब दुनिया मचलती लगती हैं।
बुधवार, 13 अक्तूबर 2010
शरमिन्दगी
आँख मुंद के जो होते हुए देखे हैं,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
जब किसी मां बहन की आबरू
लुट जाती हैं सरे बाजार,
हजारों नजरे देखती रह जाती हैं
सब होते हुए लाचार.
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
इक तरफ हैं अनाज की किल्लत,
दूसरी तरफ बहती दूध की नदियाँ,
बुंद बुंद प्यास को तरसी ममता,
सबको पता हैं लेकिन कोई नहीं जानता,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
रहते हैं आज भी कई झोपड़ों में,
कई को रहने आलिशान मकान,
रात की नींद भी लेना जहाँ हो चैन,
भगवान की चरनों में करोड़ों की देन,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
आज भी आदमी न बन पाए,
जानवर के साथ श्रुष्टि को भी सताएं,
धर्म के नाम पर करे फसाद,
खुद की ख़ुशी के लिए करे देश बर्बाद,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
जब किसी मां बहन की आबरू
लुट जाती हैं सरे बाजार,
हजारों नजरे देखती रह जाती हैं
सब होते हुए लाचार.
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
इक तरफ हैं अनाज की किल्लत,
दूसरी तरफ बहती दूध की नदियाँ,
बुंद बुंद प्यास को तरसी ममता,
सबको पता हैं लेकिन कोई नहीं जानता,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
रहते हैं आज भी कई झोपड़ों में,
कई को रहने आलिशान मकान,
रात की नींद भी लेना जहाँ हो चैन,
भगवान की चरनों में करोड़ों की देन,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
आज भी आदमी न बन पाए,
जानवर के साथ श्रुष्टि को भी सताएं,
धर्म के नाम पर करे फसाद,
खुद की ख़ुशी के लिए करे देश बर्बाद,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.
मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010
आवाज
हर तरफ से कोई जवाब नहीं,
तुझे कहाँ कहाँ आवाज दे.
क्या तु इन सब वाकियों से नाराज हैं,
क्या तुझे इन सभी लोगों से खफा हैं,
लेकिन तु तो कहता हैं के ये तुने ही बनायें हैं,
फिर गलती कहाँ हो रही हैं, उनको कोई सवाब दे.
सब कहते तेरे बन्दे हैं,
फिर भी सबके हाथ गंदे हैं,
क्या कोई तुझसे डरता नहीं,
क्या कोई तुझपे मरता नहीं, इसका कोई हिसाब दे.
सब अपने आप को तुझसे बड़ा मानते हैं ,
जब कोई आति हैं आफत तभी तेरा होना मानते हैं,
सब जानते हुए भी अनजान हैं,
फिर भी तुझसे खुश देखना चाहते हैं, उनको कोई नकाब दे.
तुझे कहाँ कहाँ आवाज दे.
क्या तु इन सब वाकियों से नाराज हैं,
क्या तुझे इन सभी लोगों से खफा हैं,
लेकिन तु तो कहता हैं के ये तुने ही बनायें हैं,
फिर गलती कहाँ हो रही हैं, उनको कोई सवाब दे.
सब कहते तेरे बन्दे हैं,
फिर भी सबके हाथ गंदे हैं,
क्या कोई तुझसे डरता नहीं,
क्या कोई तुझपे मरता नहीं, इसका कोई हिसाब दे.
सब अपने आप को तुझसे बड़ा मानते हैं ,
जब कोई आति हैं आफत तभी तेरा होना मानते हैं,
सब जानते हुए भी अनजान हैं,
फिर भी तुझसे खुश देखना चाहते हैं, उनको कोई नकाब दे.
सोमवार, 11 अक्तूबर 2010
मजे करो
खुश रहो या नाखुश
मजे करो भई मजे करो.
कुछ आये न आये,
दिखाओ ऐसे के उस्ताद हो,
सबपर झाडो रोब,
मजे करो भई मजे करो.
बिन बुलाये मेहमान होकर,
सबसे आगे आओ हंसकर,
लड़ते झगड़ते इनाम पाओ,
मजे करो भई मजे करो.
लोगोंने कितनी भी दी गलियाँ,
दिखाओ ऐसे के बजाई तालियाँ,
फिर भी प्यार की गुजारिश करो,
मजे करो भाई मजे करो.
बेशर्म होकर मांगो भिक,
गिड़गिडाकर पैर पकड़ो ठिक,
बेचकर देशको रहो नेक
मजे करो भई मजे करो.
मजे करो भई मजे करो.
कुछ आये न आये,
दिखाओ ऐसे के उस्ताद हो,
सबपर झाडो रोब,
मजे करो भई मजे करो.
बिन बुलाये मेहमान होकर,
सबसे आगे आओ हंसकर,
लड़ते झगड़ते इनाम पाओ,
मजे करो भई मजे करो.
लोगोंने कितनी भी दी गलियाँ,
दिखाओ ऐसे के बजाई तालियाँ,
फिर भी प्यार की गुजारिश करो,
मजे करो भाई मजे करो.
बेशर्म होकर मांगो भिक,
गिड़गिडाकर पैर पकड़ो ठिक,
बेचकर देशको रहो नेक
मजे करो भई मजे करो.
शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
भुक
ठोकर आदमी को चलना सिखाती है ,
भुक आदमी को जीना सिखाती है.
इसके लिए लोग कहाँ से कहाँ जाते हैं ,
कई रह्गुजरों को दरबदर कराती है.
रिश्ते भी टिक नहीं पाती इसके आगे,
भाई-भाई को ये आपस में लड़ती है.
जात पात इसके सामने कुछ भी नहीं,
आमिरों को भी ये सजदा करवाती है.
कई लोग खुदको बेचते हैं इसके लिए
माओं को भी ये बेबस करवाती है.
इसके आगे सब लाचार हैं,
भुक होशो हवास सब भुलाती हैं.
भुक आदमी को जीना सिखाती है.
इसके लिए लोग कहाँ से कहाँ जाते हैं ,
कई रह्गुजरों को दरबदर कराती है.
रिश्ते भी टिक नहीं पाती इसके आगे,
भाई-भाई को ये आपस में लड़ती है.
जात पात इसके सामने कुछ भी नहीं,
आमिरों को भी ये सजदा करवाती है.
कई लोग खुदको बेचते हैं इसके लिए
माओं को भी ये बेबस करवाती है.
इसके आगे सब लाचार हैं,
भुक होशो हवास सब भुलाती हैं.
गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010
इश्क
जीने के अंदाज़ बदल गए हैं अभीसे,
जबसे किया हैं मैंने इश्क तुझीसे.
कोई शउर, कोई सुकून भूला बैठा हूँ,
दिन रात एक सी हैं, हर पल भुला हूँ.
अब तेरी साँसों का सहारा हैं,
अब तेरी जुल्फों का आसरा हैं.
सुबह कब हुयी, शाम कब ढली किसको पता,
भूक कैसी हैं, प्यास कैसी किसको पता.
लहरों का उछलना मुझको भाता नहीं,
बादलों का बरसना रास आता नहीं.
बिजली भी अब नमसी गयी हैं तेरे आगे,
गहरी सांस भी थम सी गयी हैं तेरे आगे.
ये इश्क हैं या खुदा की देन,
अब न मैं रहा न कोई चैन.
जबसे किया हैं मैंने इश्क तुझीसे.
कोई शउर, कोई सुकून भूला बैठा हूँ,
दिन रात एक सी हैं, हर पल भुला हूँ.
अब तेरी साँसों का सहारा हैं,
अब तेरी जुल्फों का आसरा हैं.
सुबह कब हुयी, शाम कब ढली किसको पता,
भूक कैसी हैं, प्यास कैसी किसको पता.
लहरों का उछलना मुझको भाता नहीं,
बादलों का बरसना रास आता नहीं.
बिजली भी अब नमसी गयी हैं तेरे आगे,
गहरी सांस भी थम सी गयी हैं तेरे आगे.
ये इश्क हैं या खुदा की देन,
अब न मैं रहा न कोई चैन.
बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
अजनबी
आदमियों की भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ,
कई चेहरों से मिलकर भी अजनबी सा दिखता हूँ.
पास होकर भी सभी कहाँ अपने होते हैं,
मीठी नींद में देखे हुए सपने कहाँ सच्चे होते हैं.
मुस्कुराते हुए चला जाता हूँ.
शोलों को सीने में दफनाये जाता हूँ.
मायूसी का आलम यूं है
ख़ामोशी का डर यूं हैं.
आज भी तन्हाई अच्छी लगती हैं
दर्द होकर भी सच्ची लगती हैं.
कई चेहरों से मिलकर भी अजनबी सा दिखता हूँ.
पास होकर भी सभी कहाँ अपने होते हैं,
मीठी नींद में देखे हुए सपने कहाँ सच्चे होते हैं.
मुस्कुराते हुए चला जाता हूँ.
शोलों को सीने में दफनाये जाता हूँ.
मायूसी का आलम यूं है
ख़ामोशी का डर यूं हैं.
आज भी तन्हाई अच्छी लगती हैं
दर्द होकर भी सच्ची लगती हैं.
मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010
हमार सैय्याँ
सैय्याँ हमार घर आवत हैं,
खुशियों की बहार आवत हैं.
सैय्याँ हमार बचपन,
रुठत हैं तो मनावत भी हैं,
दर्द होत तो रोवत भी हैं,
माँ बाप से बढ़कर प्यार करवत हैं.
सैयाँ हमार बगियन,
झूमता पेड़, नाचता आँगन,
शर्माता जैसे टपोरा बैंगन,
जीवन में हमार हरियाली छावत हैं.
सैय्याँ हमार पालनहार,
जीवन का असली गहना
पलमे भाई पलमे बहना,
मोती भी वोही सोना भी वोही लागत हैं.
उपरवाले से यही बिनती हमार,
दुबारा जनम दे तो यहीं हरबार,
सैय्याँ बिन अब जीना नहीं,
सैय्याँ बिन दुनिया परायी भावत हैं.
खुशियों की बहार आवत हैं.
सैय्याँ हमार बचपन,
रुठत हैं तो मनावत भी हैं,
दर्द होत तो रोवत भी हैं,
माँ बाप से बढ़कर प्यार करवत हैं.
सैयाँ हमार बगियन,
झूमता पेड़, नाचता आँगन,
शर्माता जैसे टपोरा बैंगन,
जीवन में हमार हरियाली छावत हैं.
सैय्याँ हमार पालनहार,
जीवन का असली गहना
पलमे भाई पलमे बहना,
मोती भी वोही सोना भी वोही लागत हैं.
उपरवाले से यही बिनती हमार,
दुबारा जनम दे तो यहीं हरबार,
सैय्याँ बिन अब जीना नहीं,
सैय्याँ बिन दुनिया परायी भावत हैं.
सोमवार, 4 अक्तूबर 2010
राहें
गुमनाम राहें सिखाती हैं हमें,
अकेलेपन में दिया नजर आती हैं हमें.
हजारों रह्गुजरों से इतराती नहीं ,
सुनसान समय में निराश होती नहीं,
सही मायने में जिन्दगी का अंदाज़ सिखाती हैं हमें.
ऊपर, निचे अनगिनत हैं हाल भी,
भले ही कई मोड़ आते हैं फिर भी,
सीधा चलना सिखाती हैं हमें.
भागती जिंदगी का साथ देती हैं.
लगी ठोकर तो उठना सिखाती हैं,
हारे हुए पैरों में जान फूंक देती हैं हमें.
गुमनाम राहें सिखाती हैं हमें,
अकेलेपन में दिया नजर आती हैं हमें.
अकेलेपन में दिया नजर आती हैं हमें.
हजारों रह्गुजरों से इतराती नहीं ,
सुनसान समय में निराश होती नहीं,
सही मायने में जिन्दगी का अंदाज़ सिखाती हैं हमें.
ऊपर, निचे अनगिनत हैं हाल भी,
भले ही कई मोड़ आते हैं फिर भी,
सीधा चलना सिखाती हैं हमें.
भागती जिंदगी का साथ देती हैं.
लगी ठोकर तो उठना सिखाती हैं,
हारे हुए पैरों में जान फूंक देती हैं हमें.
गुमनाम राहें सिखाती हैं हमें,
अकेलेपन में दिया नजर आती हैं हमें.
रविवार, 3 अक्तूबर 2010
तेरे बिना
उदास दिल की ये तन्हाई हैं,
तेरे बिना ये आँख भर आई हैं.
जुस्तजू हैं तेरी,आरजू हैं तेरी,
आ भी जाओ, ना सताओ,
बेकरारी सी छायी हैं.
सुबह से खुबसूरत, तेरी अंगडाई हैं,
हर तरफ तू ही तू नजर आई हैं,
महफ़िल रौनक छोड़कर बेरंग नजर आई हैं.
ना जाने कब होगी मुलाकात,
धडकता सीना, रुकेसे जजबात,
अकेलापन सहा नहीं जाता, दुनिया लगती परायी हैं.
तेरे बिना ये आँख भर आई हैं.
जुस्तजू हैं तेरी,आरजू हैं तेरी,
आ भी जाओ, ना सताओ,
बेकरारी सी छायी हैं.
सुबह से खुबसूरत, तेरी अंगडाई हैं,
हर तरफ तू ही तू नजर आई हैं,
महफ़िल रौनक छोड़कर बेरंग नजर आई हैं.
ना जाने कब होगी मुलाकात,
धडकता सीना, रुकेसे जजबात,
अकेलापन सहा नहीं जाता, दुनिया लगती परायी हैं.
शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010
तेरी बिंदियाँ
देखी जो तेरी बिंदिया
बांवरें मन में प्रीत समाई रे!
उड़ता आँचल, ढलता सावन,
ठंडी अगन, बहती पवन,
झर झर बरसती धाराएँ रे!
जीने की आस, बुझती प्यास,
सुनहरी धुप, चलती सांस,
तुने कैसी लगन लगायी रे!
कत्थई आँखों का ये काजल,
जैसे छाये गहरे बादल,
बारिश की पहली बूंद उतर आई रे!
बांवरें मन में प्रीत समाई रे!
उड़ता आँचल, ढलता सावन,
ठंडी अगन, बहती पवन,
झर झर बरसती धाराएँ रे!
जीने की आस, बुझती प्यास,
सुनहरी धुप, चलती सांस,
तुने कैसी लगन लगायी रे!
कत्थई आँखों का ये काजल,
जैसे छाये गहरे बादल,
बारिश की पहली बूंद उतर आई रे!
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