गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

गुजरे हुए पलों को कौन लौटा सकता है, आने वाले फिजाओं की रंगत कौन पहचाने, आओ दुआ करे उगते हुए सूरज से, भर दो झोली उन नंगे फकीरों की, आओ फिर से एक हो जाएँ, देश के लिए मिट जाएँ। नए साल की खुशियां मनाते समय उन सभी को याद करे। छोटा हो या बड़ा, आमिर हो या गरीब सबकी खुशियाँ आबाद रहे, दिल हमारा अजीम रहे। सभी को नया साल मुबारक।

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

दूर

बुझ गए उम्मीद के चराग
सपनों की लौ बुझ गयी
आशाओं के फूल कुम्हला गए
उसके दूर चले जाने से.

तमन्ना बड़ी देर से मचली थी
मिलने की आस यूँ ही निकली थी
बह गयी सारी यादें
आसुओंकी तूफानी बाढ़ से.

डूबती नैय्या जीवन की
संकट की घडी अमावस की
दूर गूंजती हुयी शहनाई
मलती है रक्त का अबीर.

सहमी हुए रातों में
थके हारे बोझल हाथों में
सन्नाटेपन की सरसराहट
नियतीने भी दिया धोखा.

जीवन अब समाप्त हो गया
यादों के मेले कबके खत्म हुए
अकेला रह गया है शायद नसीब
दोष दे तो देभी किसें.

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

जानवर

मै गर्दन झुकाए खड़ा हूँ
आदमी होने का इम्तेहान देते
किसी वहशी लुटेरे जानवर की तरह
अपने अन्दर की इंसान को मारकर.

बदशक्ल, बेसुरत अवस्था में
ना कोई पहचनता है मुझको
भेड़ियों की तरह मैं रौंदता हूँ
अपनी यादों की कुदरत को.

ना मेरा कोई रिश्ता है
ना मै किसीका रिश्तेदार
मै बस एक ही अस्त्र लिए खड़ा हूँ
तन्हाईयों की भीड़ में खड़े उस अनजान के लिए.

क्या कुसूर है उसका
क्या उसने सिर्फ मेरी यादों के
दीवारों को टटोला था
सिर्फ इसकी सजा उसे क्यों?

मै उस चिता की तरह
सिर्फ इतना ही जानता हूँ
मुझे सिर्फ जलाना है
आदमी के अन्दर के गुरुर को

रविवार, 21 नवंबर 2010

तुम

कितने दिनों के बाद मिली हो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

अजीब चेहरों से उलझे हुए
सवालों के सायें से लिपटे हुए
अनगिनत नजरों को तुम
अपनीसी लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

हसीं पलों में हर एक चाहता था
उन लम्हों की तुम साजदार बनो
अपनी खुबसूरत सी हसी बिखेरकर
सब को आबाद करो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

परेशानी किसको नहीं होती?
लेकिन तुम्हारी जुल्फों के साए में
चमकती धुप भी
छाँव की तरह लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

जिन्दगी के मायने बदल गए है
जीने के अंदाज़ भी कुछ अलग लगते है
इस हैरान सी वीरानी में
एक साथ भी जरुरी है
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?

शनिवार, 20 नवंबर 2010

भावना

तेरे हाथों की मेहदी देख
मेरे हाथ उठते हैं दुआ के लिए.

मुझे याद हैं वो सर्द भरी शाम
जब पहली बार तुमने
मुड के देखा था मुझे
तुम्हारी वो जादूभरी हसी से
मै सिकुड़ सा गया बिलकुल
कम्बल में खामोश पांवों की तरह.

बरसाती दिनों में हम
जब भीगे थे एकसाथ
तुम्हारी आँचल से गिरता हुआ पानी
मेरे तनबदन को कांपती हुई रूह की तरह
सर से लेके पाँव तक एक निशब्द गहरी सांस.

मचलती धूप में जब तुम निकलती थी
किरणों के साथ हमारी बदन की तपिश
बिस्तर पे पड़ा हुआ प्यासा मन
सब एक दहलती हुई आग की तरह
अंगारों की राख को टटोलता हुआ.

अब भूलना चाहता हूँ वो सारे पल
सीप से निकला हुआ मोती बनके
उसके सेज पे सजाना चाहता हूँ
उसके पीले बदन और हाथों की हिना
मेरे कर्मों का फल समझकर
मै चुप रहूँगा तेरे यादों की तन्हाई में.

शनिवार, 13 नवंबर 2010

खालीपन

खालीपन बहुत सताता है
इस दौडती हुई दुनिया में
परेशानी देखी जा सकती है
हर एक के चेहरे पे.

बड़ी उदासी उन अँधेरी कोठरी में
मानो हंस रही हैं अपने आप पर
मन का आइना भी काले पत्थर की तरह
किसी अंजान पहाड़ का एक हिस्सा.

जीवन एक संगरहित पथ
दीवारें भी चुपचाप अकेली
अपना मानस भीतर व्यस्तता में मगन
सांसों के बिच द्वन्द का दहन.

ना कोई गतिविधि
हर जगह एकाकीपन
धरती के चारो खुंट
सारी ओर से जकड़े हुए.

ना कोई जीवनसाथी
हाथ में हाथ पकडे चलता
थक गए हैं सारे नयन
सपनों के सुनसान जंगल में.

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

नदी के पार

नदी के उस पार खड़ी है,
निश्चल, निशब्द जिन्दगी
नंगे बदन पे ढका हुआ
मांसल, प्रौढ़ शरीर.

रेत पर लिखता हुआ
अपने जीवन का सफ़र
छूता हुआ अपने हाथ से
काले, निर्मम लकीरों को.

अनगिनत फूल के पदचिन्ह
मिटाए नहीं जाते
जल से भरे हुए
मृदुल नहाये हुए कदम

कोई उड़ के आएगा
मिटा देगा हस्तियाँ
जलाये हुए राखसे,
निकालेगा अस्थियाँ.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

जिंदगी

कहीं फासलों से गुजरती हुई जिन्दगी
क़दमों के निशान छोड़ जाती है
अँधेरे में चमकते हुए तारों की तरह
आती जाती रहती है.

तन्हाईयाँ पुकारती है
शहनाईयों की तरह
दिल के क़दमों की आवाज़ आती है
छन छन करती पायल की तरह.

वादियाँ अलग सी लगती है
नदियाँ गीत गाती है
भंवरें भी गुनगुनाते है
दिलरुबा लगती है ये जमीन.

तेरी गर्म बाहें
तेरी नर्म सांसे
जान मेरी यूं लेती है,
जैसे चुराकर कोई नींद.

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

छोरी

गाँव की वो अल्ल्हड़ सी छोरी,
दुनिया की परेशानियों से दूर,
कितना सुकुं हैं उसके चेहरे पे,
शायद इस घिनौनी दुनिया से लापता.

उसके मन का भोलापन,
बिखरे बाल बाँवरे नयन,
जिन्दगी के भागदौड से कितनी दुर,
शुद्ध निर्मल जल की तरह.

घर के आँगन में बसे पेड़ की छाँव,
सुबह की धुप और वो महक,
बारिश की वो पहली बुंद,
बरसती धाराओं की तरह हसी.

गाँव आज अलग पड़ गए है,
रौनक आज फिकि पड़ गयी है ,
लेकिन फिर भी उसका होना जिन्दगी की निशानी हैं,
जैसे हरेभरे पेड़ों की शाखाएं फिर से उभर आई हो.

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

बचपन

बचपन के वो दिन याद आते है,
जब संग खेले थे अपने साथियों के साथ,
बहुत शोर मचाया था और डांट भी खायी थी.

गिल्ली, डंडा लेके जब गांव के बाहर,
आम के पेड़ के निचे बैठ के खाए थे,
माँ ने दि हुयी रोटी और बेसन,
जब भी वो देखता हूँ तो माँ की याद आती है.

वीरानसी पड़ी हुई हवेली,
भुत प्रेत की वो अजब कहानियां,
डरावनी लगती थी वो सड़कें,
जब गुजरते थे हम उस तरफसे.

गुड, बेर, मुली, गाजर क्या नहीं था लाया,
जमींदार के खेत से चुपके से जाकर,
आज भी वो सब याद आता हैं,
मानो शहर एक जमींदार सा लगता है.

गांव के पास से बहती हुई नदी,
झरनों से गुन गुन करती कोयल,
कितना सुहावना था मौसम,
आँगन भी लगता था श्याम जी का गोकुल.

आज अपने घर के बाहर जब मै देखता हूँ
बचपन के वो सारा मंजर नजर आते है,
दिवाली की वो रात मेरा गांव कितना जगमगाता था,
हाँ कुछ जरुर शान कम हुई हैं लेकिन आनंद वही हैं.

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

जश्न

अँधेरे में वो जगमगाता शहर मुझे अजीब सा लगता है,
फटे पुराने कपड़ों में लपेटा हुआ नया दुपट्टा सा लगता है.

सारे शहर में जिस तरह रात भर जश्न चल रहा है,
लगता तो ऐसा है के सारे तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ है,
क्या वास्तविकता से परे होकर हम जी रहें है,
क्या आज भी सभी तरफ उजियारा है?

नए दीप जलाते तो है, लेकिन मन का अँधियारा नहीं मिट पाया,
जगमगाते हुए शहरों का सुनापन अब भी उसी तरह है,
कितने घर अब भी चिराग के लिए सुलग रहें है,
ना जाने कितनों के तन अब भी ठन्डे पड़े हैं.

खुशियाँ की सौगात तो आई है, लेकिन जरा उधर भी देखो,
उन अनगिनत विवस्त्र पड़े हुए बच्चों की तरफ,
जो बिना माँ बाप के रेल की पटरी को अपना घर समझते है,
उनकी भी खुशियाँ बाटों फिर देखो सही मायने में जिन्दगी.

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

मकान

देखो महलों में रहनेवालों
हमारे तरफ भी जरा एक नजर उठाके देख लो
रहते हो तुम उस जहाँ में,
हमारे लिए भी कोई आसरा तो दो.

घर का मतलब ही क्या हैं हमारे लिए,
चार दिवारों के ऊपर एक टुटी फुटी छत,
बारिश के समय में होगा एक आसरा,
लगी ठण्ड तो होगा नंगे बदन को ढकने का सहारा.

आप के लिए घर पैसे जमा करने एक व्यापार हैं,
मिला तो सही नहीं मिला तो कई कारोबार हैं,
हमारे लिए वो जिन्दगी भर की पूँजी हैं,
पल पल मरकर जिने के लिए बनाया ताजमहल.

दर दर की ठोकरे खाकर,
हमने बनाया हैं आशियाँ,
हम ही जानते हैं घर का मतलब क्या हैं,
आप के लिए कुछ होगा हमारे लिए तो मंदिर है.

आज भी कईयों के सपने,
सच नहीं होते,
कई बार तो लगता हैं जिते ही हैं,
एक मकान के लिए.

कई करोड़ों के लिए ये,
आज भी एक सुहाना सपना है,
हर एक को लगता हैं,
हो न हो मकान अपना हैं.

कहते हैं मकान उजड़ी हुयी दुनिया बसाता हैं,
दुनिया एक घर नहीं तो और क्या हैं,
फिर भी लोग आज एक मकान के लिए दरबदर भटकते हैं,
मारे मारे दो गज जमीं के लिए अपना सर पटकते है.

सुबह

सुबह होती है और शुरुआत होती है,
जिंदगी के नये सफ़र की.

भोर की पहली किरण निकलते ही ,
वो मंदिरों से आती हुई शहनाई की आवाजें,
मस्जिदों से आती हुई अजान की पुकार,
नदी के किनारे स्नान करते हुए लोगों की प्रार्थनाएं.

बच्चों की स्कूल के लिए चल रही तय्यारी,
दूधवाला और पेपरवाला भी दौड़ रहे है,
हर को पहुंचना है सही समय पे,
किसको समय है दुसरे की तरफ देखने के लिए.

सुबह का उगता हुआ सूरज,
सबको सिखाता हैं जिने का अंदाज़,
कल क्या हुआ ये न सोचो,
आज क्या होगा इसके लिए तैयार रहो.

दिन ढलने से आई हुई थकान,
सुबह के ठंडी हवाओं की ताजगी,
देती हैं उर्जा फिरसे कम करने की,
ये सुबह बार बार देती हैं जनम.

हर सुबह नयी लगती है,
बिलकुल दुल्हन की तरह,
व्याकुल अपने हमसफ़र को मिलने को,
और नए घर को फिरसे सँवारने को.

सुबह आये तो महक उठे समां,
फुल खिल उठे और कोयल चहकने लगे,
वो सुनसान सा जंगल भी,
किसी शादी के मंडुए की तरह लगे.

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

रिश्तें

कुछ रिश्तों को गन्दी नजरों से देखा जाता हैं,
क्या वो कानून अब भी अँधा बना हुआ हैं?

जात पात से परे होकर हम आगे तो जा रहें हैं,
लेकिन अभी भी मा बहनों को देखने का नजरिया वही हैं,
क्यों उनके दर्द हम पहचान नहीं पाते हैं?,
क्यों उनकी भावना हम समझ नहीं पाते हैं?

क्या अभी भी वो एक खिलौना हैं,
हमारी जिन्दगी को खुश रखने का?
क्या उन्हें अपना हक़ दिलाने में,
हमारी असल में कसौटी हैं?

सच तो ये हैं के हम ही उनके रास्ते के कांटे हैं,
हम खुद नहीं चाहते के वो आगे आयें,
हम भी वही सामंतवादी प्रतिष्ठा के रक्षक हैं,
जो खुद नहीं चाहते कोई भी हमसे आगे जाएँ.

जब तक हम उन्हें अपना अधिकार नहीं बाटेंगे,
हम उन्हें सही मायने में अपना हमसफ़र नहीं बनायेंगे,
हमें कोई अधिकार नहीं उन्हें गूंगी गुड़ियाँ बनाने का,
उन्हें पल पल यातना दिलाने का.

सोचा था ये पुरुष प्रजाति नहीं देगी ,
तो कानून तो दिलाएगा उन्हें अधिकार,
अपने आँखों पे लगी काली पट्टी उसने हटाई नहीं हैं,
कानून भी पुरुषों ने ही बनाया होगा?

गंदे शब्द कितनी भी कहें होंगे,
काले धब्बे कितने ही लगाने की कोशिश की होगी,
वो आज भी गंगा की तरह पवित्र हैं,
जरुरत हैं उसका जल ऐसे विकृतियों को पिलाने का.

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

भविष्य

क्या होगा भविष्य उन शहरों का,
जो भरे पड़े हैं लोगों के जंगलों से.

सुन्दर पर्वत अब उजड़ी हुयी मांगों की तरह दिखते हैं,
कईं लोग कांप रहें हैं उनकी जड़े बेखौफ होकर.

गन्दी नालियां, गंदे रास्ते अब बन गए हैं कूड़े,
झुग्गियों से निजात कब मिलेगी यही सोच रहें हैं कीड़े.

पानी के लिए अब भी लोग तरस रहें हैं ,
एक एक बूंद के लोग एक दुसरे पे बरस रहें हैं.

आज भी लोग ठीक से सो नहीं पाते.
डर के मारे मकान से निकल नहीं पाते.

सोने के लिए बिस्तर भी कम पड़ता हैं,
खाने के लिए अनाज भी कम पड़ता हैं.

उनकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं हैं,
जाये तो कहाँ जाएँ बताने वाला कोई नहीं हैं.

ऊपर वाला भी आजकल सुनता हैं उनकी ही जो मोटा चढ़ावा चढाते हैं.
गरीबों की सुनने के लिए उसके पास वक्त नहीं हैं, वो कहाँ भाव बढ़ाते हैं.

पानी से भी सस्ता दूध ,किसान कहाँ बोते हैं,
माँ के बिना बच्चे भी लोरी सिवा सोते हैं.

नेता, गुंडों की सब मिली जुली हैं,
ज़माने की आगे किसकी चली हैं.

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

अधूरापन

जब भी चाँद को देखते हैं,
अधूरापन नजर आता हैं हमें.

लावारिस सी भटक रही जिन्दगी,
खाली हाथ कटोरा लेके घूमते भिखारी,
और सुनसान सी गली में बंद पड़ा कमरा,
सभी एक जैसे दिखते हैं.
ऊजड़े गाँव, बंजर खेत,
बीमार माँ बाप और पापी पेट,
किसको सुनाये अपना हाल,
रोटी के लिए फिरता मायाजाल.

क्या आदमी आपने आप को पहचान पायेगा,
इन सारी खोखलेपन से निजात पायेगा,
फटे हुए छतों से अब बेबस चाँद नजर आता हैं,
झडे हुए पत्तों से शजर अधुरा सा नजर आता हैं.

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

अँधेरा

अँधेरे से यूँ डर लगता हैं,
कहीं खो न जाऊं उन कालकोठरी में.

कितना अजीबसा लगता हैं ,
जो सूरज की चमकती हुयी,
धुप से भी न घबराता था,
आज लगता हैं उन्ही में सिमट न जाऊं मैं.

रात कांटने को दौडती हैं,
टिमटिमाते तारे भी अब मुझे नजर नहीं आते,
सन्नाटे भी अब चिरके निकलते हैं मुझसे,
चन्द्रमा की शीतल छाँव गर्मी को हैं जगाती.

दूर तलक कोई दीप नजर नहीं आता,
रास्ते भी अब सुनसान से नजर आते हैं,
जैसे ही यूँ अंधकार बढ़ता जाता हैं,
पैर खिसकते नजर आते हैं.

अँधेरे का भेद कौन पढता हैं,
उजालों के सच कौन मानता हैं,
सब झूठ हैं उसी पंछी की तरह,
पिंजरे से उड़कर वापस लौटने की तरह.

शिकवा

जिस बात का डर था वही हुआ,
हम उनसे बिछड़े आखिर वही हुआ .

कई बार खयाल आया की मुड़ जाएँ,
दुख तो जरुर होगा की रुक जाएँ,
मगर दिल था के मानता नहीं था,
अब जाके मान गया लेकिन क्या हुआ.

अब फिरसे वही होगा,
न नींद होगी न चैन होगा,
अब किसे बताएँगे दिल का हाल,
अब रंज होगा न सुकुन होगा.

जिन्दगी को जो पसंद हैं वही तो होता हैं,
कहाँ आखिर सोचा वो सही होता हैं,
देखते हैं जिन्दगी कहाँ ले जाती हैं हमें,
याफिर आखिर कफ़न में खत्म होता हैं

किस किस से नाराज हो जाएँ,
कोई एक कारण हो तो बताएं,
अब कोई गम नहीं हमें,
खुदा सहने की ताकत दे हमें.

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

जिस्म

चांदनी रात के उजालो में,
तेरा जिस्म दुधिया दिखता हैं।

तेरी झुकी नजर,
चिर के ले गयी लफ्ते जिगर,
खुले बालों ने जादू किया,
मदहोशी नींद उडाती हैं।

होश का आलम न पुछो,
मस्ती का आलम न पुछो,
जजबातों ने मचाया हैं कोहराम,
महक भी अब संदल सी लगती हैं।

हसीं समां हैं जवान है रात,
अब न हम हैं न हमारे जजबात,
दमकते हुए गुलाबी रुखसार,
अब दुनिया मचलती लगती हैं।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

शरमिन्दगी

आँख मुंद के जो होते हुए देखे हैं,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

जब किसी मां बहन की आबरू
लुट जाती हैं सरे बाजार,
हजारों नजरे देखती रह जाती हैं
सब होते हुए लाचार.
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

इक तरफ हैं अनाज की किल्लत,
दूसरी तरफ बहती दूध की नदियाँ,
बुंद बुंद प्यास को तरसी ममता,
सबको पता हैं लेकिन कोई नहीं जानता,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

रहते हैं आज भी कई झोपड़ों में,
कई को रहने आलिशान मकान,
रात की नींद भी लेना जहाँ हो चैन,
भगवान की चरनों में करोड़ों की देन,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

आज भी आदमी न बन पाए,
जानवर के साथ श्रुष्टि को भी सताएं,
धर्म के नाम पर करे फसाद,
खुद की ख़ुशी के लिए करे देश बर्बाद,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

आवाज

हर तरफ से कोई जवाब नहीं,
तुझे कहाँ कहाँ आवाज दे.

क्या तु इन सब वाकियों से नाराज हैं,
क्या तुझे इन सभी लोगों से खफा हैं,
लेकिन तु तो कहता हैं के ये तुने ही बनायें हैं,
फिर गलती कहाँ हो रही हैं, उनको कोई सवाब दे.

सब कहते तेरे बन्दे हैं,
फिर भी सबके हाथ गंदे हैं,
क्या कोई तुझसे डरता नहीं,
क्या कोई तुझपे मरता नहीं, इसका कोई हिसाब दे.

सब अपने आप को तुझसे बड़ा मानते हैं ,
जब कोई आति हैं आफत तभी तेरा होना मानते हैं,
सब जानते हुए भी अनजान हैं,
फिर भी तुझसे खुश देखना चाहते हैं, उनको कोई नकाब दे.

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

मजे करो

खुश रहो या नाखुश
मजे करो भई मजे करो.

कुछ आये न आये,
दिखाओ ऐसे के उस्ताद हो,
सबपर झाडो रोब,
मजे करो भई मजे करो.

बिन बुलाये मेहमान होकर,
सबसे आगे आओ हंसकर,
लड़ते झगड़ते इनाम पाओ,
मजे करो भई मजे करो.

लोगोंने कितनी भी दी गलियाँ,
दिखाओ ऐसे के बजाई तालियाँ,
फिर भी प्यार की गुजारिश करो,
मजे करो भाई मजे करो.

बेशर्म होकर मांगो भिक,
गिड़गिडाकर पैर पकड़ो ठिक,
बेचकर देशको रहो नेक
मजे करो भई मजे करो.

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

भुक

ठोकर आदमी को चलना सिखाती है ,
भुक आदमी को जीना सिखाती है.

इसके लिए लोग कहाँ से कहाँ जाते हैं ,
कई रह्गुजरों को दरबदर कराती है.

रिश्ते भी टिक नहीं पाती इसके आगे,
भाई-भाई को ये आपस में लड़ती है.

जात पात इसके सामने कुछ भी नहीं,
आमिरों को भी ये सजदा करवाती है.

कई लोग खुदको बेचते हैं इसके लिए
माओं को भी ये बेबस करवाती है.

इसके आगे सब लाचार हैं,
भुक होशो हवास सब भुलाती हैं.

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

इश्क

जीने के अंदाज़ बदल गए हैं अभीसे,
जबसे किया हैं मैंने इश्क तुझीसे.

कोई शउर, कोई सुकून भूला बैठा हूँ,
दिन रात एक सी हैं, हर पल भुला हूँ.

अब तेरी साँसों का सहारा हैं,
अब तेरी जुल्फों का आसरा हैं.

सुबह कब हुयी, शाम कब ढली किसको पता,
भूक कैसी हैं, प्यास कैसी किसको पता.

लहरों का उछलना मुझको भाता नहीं,
बादलों का बरसना रास आता नहीं.

बिजली भी अब नमसी गयी हैं तेरे आगे,
गहरी सांस भी थम सी गयी हैं तेरे आगे.

ये इश्क हैं या खुदा की देन,
अब न मैं रहा न कोई चैन.

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अजनबी

आदमियों की भीड़ में खुद को अकेला पाता हूँ,
कई चेहरों से मिलकर भी अजनबी सा दिखता हूँ.

पास होकर भी सभी कहाँ अपने होते हैं,
मीठी नींद में देखे हुए सपने कहाँ सच्चे होते हैं.

मुस्कुराते हुए चला जाता हूँ.
शोलों को सीने में दफनाये जाता हूँ.

मायूसी का आलम यूं है
ख़ामोशी का डर यूं हैं.

आज भी तन्हाई अच्छी लगती हैं
दर्द होकर भी सच्ची लगती हैं.

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

हमार सैय्याँ

सैय्याँ हमार घर आवत हैं,
खुशियों की बहार आवत हैं.

सैय्याँ हमार बचपन,
रुठत हैं तो मनावत भी हैं,
दर्द होत तो रोवत भी हैं,
माँ बाप से बढ़कर प्यार करवत हैं.

सैयाँ हमार बगियन,
झूमता पेड़, नाचता आँगन,
शर्माता जैसे टपोरा बैंगन,
जीवन में हमार हरियाली छावत हैं.

सैय्याँ हमार पालनहार,
जीवन का असली गहना
पलमे भाई पलमे बहना,
मोती भी वोही सोना भी वोही लागत हैं.

उपरवाले से यही बिनती हमार,
दुबारा जनम दे तो यहीं हरबार,
सैय्याँ बिन अब जीना नहीं,
सैय्याँ बिन दुनिया परायी भावत हैं.

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

राहें

गुमनाम राहें सिखाती हैं हमें,
अकेलेपन में दिया नजर आती हैं हमें.

हजारों रह्गुजरों से इतराती नहीं ,
सुनसान समय में निराश होती नहीं,
सही मायने में जिन्दगी का अंदाज़ सिखाती हैं हमें.

ऊपर, निचे अनगिनत हैं हाल भी,
भले ही कई मोड़ आते हैं फिर भी,
सीधा चलना सिखाती हैं हमें.

भागती जिंदगी का साथ देती हैं.
लगी ठोकर तो उठना सिखाती हैं,
हारे हुए पैरों में जान फूंक देती हैं हमें.

गुमनाम राहें सिखाती हैं हमें,
अकेलेपन में दिया नजर आती हैं हमें.

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

तेरे बिना

उदास दिल की ये तन्हाई हैं,
तेरे बिना ये आँख भर आई हैं.

जुस्तजू हैं तेरी,आरजू हैं तेरी,
आ भी जाओ, ना सताओ,
बेकरारी सी छायी हैं.

सुबह से खुबसूरत, तेरी अंगडाई हैं,
हर तरफ तू ही तू नजर आई हैं,
महफ़िल रौनक छोड़कर बेरंग नजर आई हैं.

ना जाने कब होगी मुलाकात,
धडकता सीना, रुकेसे जजबात,
अकेलापन सहा नहीं जाता, दुनिया लगती परायी हैं.

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

तेरी बिंदियाँ

देखी जो तेरी बिंदिया
बांवरें मन में प्रीत समाई रे!

उड़ता आँचल, ढलता सावन,
ठंडी अगन, बहती पवन,
झर झर बरसती धाराएँ रे!

जीने की आस, बुझती प्यास,
सुनहरी धुप, चलती सांस,
तुने कैसी लगन लगायी रे!

कत्थई आँखों का ये काजल,
जैसे छाये गहरे बादल,
बारिश की पहली बूंद उतर आई रे!

बुधवार, 29 सितंबर 2010

तेरे कदम

चलूँ मैं साथ तेरे
कदम से कदम मिलाके.

कई बार चलूँ तुझसे कन्धा मिलाके
हाथ से हाथ धरे साथ मिलाके.

कई बार चलूँ तेरे आगे
रास्तें पे बिखरे काँटों पे चलके.

तेरे पिछे चलने भी लगती हैं ख़ुशी
रक्खे हैं जिस मिटटी पे कदम तुमने.

तुम कहीं भी हो तो सच इतनासा हैं,
दिल के हर कोने बसा एक सपनासा हैं.

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

बलम

जब सुबह उठती हूँ
सामने तुझको देखती हूँ .

रात भर मैंने जो सपने संजोये थे
मेहंदी भरे हाथों को सामने रखकर,
बहुत खुश हूँ उन्हें तुम्हारे
नजर से सच होते हुए देखकर.

सँवरते हुए बालोंको लेकर
अपने आप से उलझ जाती हूँ मैं,
छुते हो गेसुए बदन को तो
आँख चुराते शरमा सी जाती हूँ मैं.

तुम्हारी बाँहों में सुकून सा लगता हैं
आगोश में लेते हो जब तुम मुझे,
बाँवरे बालम तुझपे जान लुटा दूं मैं,
आँचल हटा कर देख लेते हो जब तुम मुझे.

सोमवार, 27 सितंबर 2010

दर्द का चेहरा

दर्द का चेहरा कैसे दिखता हैं.
मुरजाता या खुद पे इतराता.

कईयों में बस जाता हैं ये
कईयों को बेबस करता हैं ये.

इसका वजूद चेहरे पे दिखता हैं
दूर जाते हुए निशान छोड़ जाता हैं.

ये अपनासा भी लगता हैं
इससे बचाना सा भी लगता हैं.

इसके चेहरे के पीछे छुपा राज हैं
भेड़ियों की जमात का ये सरताज हैं .


रविवार, 26 सितंबर 2010

पेड़

ये हराभरा पेड़ यूँ ही कायम रहें
जीने के अंदाज़ यूँ ही कायम रहें.

पत्तों का हरापन ऐसे लगता हैं,
जैसे वतन लौट आया हुआ परदेसी.

शाखाओंका लचकना ऐसे
के मानो लड़की अल्हड सी.

फलों की बात ही कुछ और हो
जवानी का जोर कुछ और हो.

आज फूलों को भी उछलना सा लगता हैं
तितलियों की तरह उड़नासा लगता हैं.

यादे भी बिकुल पेड़ जैसी हैं
बढती हैं जैसे तरोताजा हो.

हवाओं की महक मानो
चन्दन जैसी लगती हो.

शनिवार, 25 सितंबर 2010

माँ

दुनिया की हर चीज प्यार बिना अधूरी हैं
बुलंदी की हर ख़ुशी माँ बिना अधूरी हैं.

हर एक कदम, हर एक सांस
जिन्दा होने का अहसास दिलाती है,
माँ की एक छोटीसी बात भी
कमजोरों में जान फूंक देती हैं.

माँ ने एक नजर देखा भी तो
सारे गम मिट जाते हैं ,
माँ ने फेरा हाथ सरपे तो
सारे जख्मों पे मरहम लग जाते हैं .

कभी भूकी कभी प्यासी रहके
उसने हमें संभाला हैं,
कभी चुपके कभी मुस्कुराके
माँ ने हमको पाला हैं.

अगर माँ न होती तो मैं भी न होता
आज मै भी उसके लिए बच्चा हूँ ,
जिन्दगी के कसौटी पे
उसीके सहारे मैं खड़ा सच्चा हूँ .

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

बादल

बदली हुयी रुतों के साथ
सतरंगी बादल दिखतें है

कुछ काले बादल
अनगिनत दुखों के
कुछ छटे बादल
रुकी हुयी जिन्दगी के.

बादल जो गरजते हैं
माँ से बिछड़ते हुए बच्चों की तरह,
बादल जो साफ़ हैं
दीखते हैं आईने की तरह.

उजले, नीले, गहरे न जाने कितने
बादलों के रूप नजर आते है
धुंदलाये हुए फिजाओं के तरह
जीवन को दर्शाते है.