सोमवार, 30 अप्रैल 2012

पत्थर की लकीरें

ये कहानी एक ऐसे होनहार लड़के की जिसने पत्थर को ही नहीं बल्कि जिन्दगी को एक जीता जागता चित्र बनाया.  ये जिन्दगी भी कितनी अजीब होती हैं.  कब क्या होगा किसीको पता नहीं चलता. एक छोटेसे गाँव में पत्थर तोड़नेवाले समाज में पैदा हुए इस  आंतरराष्ट्रीय कलाकार की ये कहानी हैं. माँ बाप गरीबी से झुझते हुए रोजमर्रा की जीवन में संघर्ष करते हैं. ऐसे परिवार में एक लड़का बड़ा होता हैं अपने प्रतिभासे अपना नाम रोशन करता हैं. ऐसे ही एक प्रतिभाशाली और होनहार चित्रकार की ये कहानी हैं.
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के मोहोल तहसील में शिरापुर नाम का एक गाँव. छोटासा क़स्बा जहाँ पे शशिकांत धोत्रे का जनम हुआ. बचपन से गरीबी के मार से झुझते हुए बड़ा होता शशिकांत एक सपना संजोये हुए था. उसे चित्रकारी से लगाव था. लेकिन गरीबी के मारे वो आगे नहीं जा सकता था. ऐसे में उसने १० वी तक लगभग पढलिख लिया. उसके बाद उसे दुसरे लड़कों की तरह काम  की तलाश के लिए निकलना पड़ा. गाँव के पास नदी से रेती निकलने वाले ट्रक पर वो मजदुर की हैसियत से जाने लगा. लेकिन उसे अपना मूल आधार चित्रकला गंवाना नहीं थी. ऐसे में उसने एक चित्र तैयार करके दिखाया. तो उसके दोस्तों से उसे चित्रकला की प्राथमिक शिक्षा लेने की सलाह दी. उसने वो भी किया. लेकिन उसे पैसे नहीं मिले.
उसके बाद १२ तक की पढाई की. वो मुंबई चला गया. वहां  कुछ छोटे मोटे कम करना शुरू किया. फिर भी उसे कुछ अलग करना था.  एक स्पर्धा के लिए अपना चित्र भेजा जिसे प्रथम पारितोषिक मिला. शशिकांत का हौसला बढ़ा. कुछ ने उसे जे. जे. आर्ट कॉलेज में जाने की सलाह दी. लेकिन उसके पास इतने पैसे नहीं थे. वहां जाकर भी उसे वापस आना पड़ा.  वो कॉलेज छोड़ना पड़ा. फिर पहले की तरह वो बेकार सा  घूमता रहा.
फिर शशिकांत ने पोस्टर्स तैयार करना शुरू किया  इन, आउट, एक्सिट के बोर्ड लिखकर उसने अपनी  जिन्दगी गुजारना शुरू की.  उसकी पहली पेंटिंग्स ३००० रुपयों में बिकी. उसके बाद उसने पीछे मूड कर नहीं देखा.
कुछ दिन पहले उसकी जहाँगीर आर्ट ग्यालरी में प्रदर्शनी भरी हुई थी. मुंबई के सभी कलाकार आये. सभी ने उसके पेंटिंग्स को सराहा. अमेजिंग, हो ही नहीं सकता, ये कैसा अजब का चित्रकार हैं. सभी का एक ही कहना था. कितना अजब का चित्रकार हैं. काले कागज पे पेंटिंग करता हैं. ऐसा कभी हुआ भी हैं?
आज शशिकांत की पेंटिंग्स टाटा, अम्बानी से लेकर ऊँचे लोगों तक खरीद चुके हैं. आज लन्दन के आर्ट मैगजीन में  उसके बारे में छपा हैं. लेकिन फिर भी उसके पाँव अभी भी मिटटी के ही हैं.
वो आज भी अपने पैतृक गाँव को नहीं भुला हैं. उसका परिवार उसके साथ ही रहता हैं. दुनिया के दूर दूर के लोग उसके साथ आना चाहते हैं. मिलना चाहते हैं लेकिन उसे वक्त नहीं हैं. आज भी गाँव के हर एक के साथ वो उसी अंदाज में पेश आता हैं.
अपने गाँव में उसने अपना स्टूडियो शुरू किया हैं. एम. एफ. हुसैन उसके आदर्श हैं. एक दिन उन्ही की तरह वो मशहूर होना चाहता हैं. आज भी उसे कई तरह के ऑफ़र्स आते हैं. लेकिन वो अपनी जिन्दगी खुद जीना चाहता हैं.

जिन्दगी का सफ़र हैं ये कैसा सफ़र
कोई समझा  नहीं कोई जाना नहीं.

रविवार, 29 अप्रैल 2012

हाथों की ठंडक

तेरे हाथों की लकिरें बताना भुल गयी 
मेरे साथ तेरा नाता पुराना हैं 
कुछ बाते कहने की नहीं 
समझने की भी होती हैं 

सरगर्मी की वो धुप 
और तेरे माथे का पसीना 
मुझे याद  दिलाता रहा 
फिसलते हुए क़दमों का बोझ.

पिछले साल की गर्मी मुझे 
बहुत कुछ ठंडक दिला गयी 
शायद तुम मेरे साथ थी 
और हाथों को  जकड के रक्खा था.

आज  सूरज की किरने
चुभते हुए काँटों की तरह लगती हैं 
शायद वो भी जानती हैं 
बहुत कुछ बदला हुआ हैं 

 आज भी याद करता हूँ 
जिन्दगी के वो हसीं पल 
डूबता हुआ सूरज भी 
माथे का सिंदूर बनकर बैठा है.


शनिवार, 28 अप्रैल 2012

भुले हुए रिश्तें

आज मैंने अपने सारे रिश्ते छोड़  दिए
जिस्म से उतारे हुए कपड़ों की तरह.

जब भी कभी उदास होता
और कुछ लिखता तो
वो बोलती इतना क्यों
नाराज होते हो, भुल जाओ

क्या मालूम था के
वो नाराजगी हमेशा के लिए थी
आज जब हम दोनों अलग हो गए हैं
तो वो सारी बाते याद आती हैं

जिन्दगी में कभी तन्हा न थे
लेकिन आज कुछ जरुर लगता हैं
उदासी का ये आलम कुछ
अपनासा  सा लगता हैं.

आज मैं उन बातों को
भुलाना चाहता हूँ
एक नयी जिन्दगी
फिरसे गुजारना चाहता हूँ.

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

आज कल पांव

आज कल पांव नहीं पड़ते मेरे, देखा हैं तुमने मुझे उड़ते  हुए. गुलजार साहब ने ये लिखा हुआ गीत बहुत ही सुन्दर हैं. आज कल हर एक को चलने  की  फुर्सत  ही नहीं हैं. सब लोग अपने अपने काम में इतने व्यस्त हैं के उन्हें विचार करने तक का समय नहीं मिलता. सभी लोग उड़ना चाहते हैं वो भी कम समय में. 
लोगों के चन्द मिनिटों में वो सुब कुछ चाहिए जिसे पाने के लिए कुछ घंटे लग सकते हैं. कोई रुकने के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं. मालूम नहीं इस इंस्टंट ज़माने में लोग अपने आप को और कितना  खींचने  वाले हैं. हर एक बात की तय सीमा होती हैं. बच्चा भी अपने माँ की कोक से पैदा होने के लिए कम से कम 9 महीने  का समय लेता  हैं. लेकिन उसमे में भी कुछ जल्दी हो सकता हैं क्या इस बारे में संशोधन शुरू हुआ हैं.
इस इंस्टंट ज़माने में हर एक बात अलग हैं. बच्चों से लेकर बूढों तक सबको जल्दी हुई हैं. कम समय में पढाई करके जल्द  से जल्द  कोई नौकरी मिले. पैसे भी बहुत जल्दी मिले और एक कामयाब आदमी बनाने का सपना हर कोई संजोये हुए हैं. लेकिन एक बात जरुर हैं. समय से पहले और वक्त से ज्यादा किसीको कुछ नहीं मिलता. यही सबक सबने लिया तो वो बड़ा दिन होगा.