बुधवार, 28 जुलाई 2021

ये धुआं कहां से उठता है

 



देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
मीर तकी मीर साहब ने क्या कमाल का कलाम लिखा है। मेहंदी हसन साहब ने बहुत ही बेहतरीन गाया है। वैसे तो हम कहते रहते है, जहाआग हो, वहाँ से धुआं उठता ही है। ये जो आग है, वो अंदर की हो या बाहर कि, उसका धुआं आना लाजमी है। हमारे अंदर कुछ न कुछ चलता रहता है। कभी कभार उसे चिंगारी मिल जाती है और आग लगना मुमकीन होता है। कभी कभी अंदर ही अंदर सुलगता धुआं एक बडी सी आग के रुप मे आगे आता है। हम ये भी कहते हैं के धुआं उठने से पहले उस पर काबू करना चाहिए वरना आग अपने काबू से बाहर हो जाती है। इसका मतलब ये भी है के कोई भी मसला जल्द से जल्द निपटना चाहिए। किसी भी सवाल का जवाब जरुर होता है, लेकिन उसका हल निकलना हो तो, वरना वो सवाल आगे चल कर बडा मसला बन जाता है। फिर उसका जवाब ढुंढने में वक्त लगता है। कई बार साल गुजर जाते है।
मीर साहब लिखते हैं, इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है , कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है।  इश्क जरुर भारी पत्थर होगा, लेकिन उसे निर्बल भी उठा सकता है, जब तक उसे इश्क ना हो। मतलब कोई भी चीज़ इश्कसे बेहतर नही। इश्क करना और मुकम्मल करना कईओं के लिये इबादत है, पूजा है। सो इश्क करने से पहले हर इक के दिल मे इक धुआं सा उठता है। आगे चल कर इश्क इक आग बन जाती है। उसे रोक पाना मुश्किल बन जाता है।
बैठने कौन दे है फिर उस को, जो तिरे आस्ताँ से उठता है। तुम्हारे दहलीज से उठने के बाद वो बैठने का नाम नही लेता। वो आगे चलते जाता है। उसके दहलीज पर आने के बाद उसे इक मुकम्मल जहाँ हासिल होता है। उस दिल को बडा सहारा मिल जाता है। फिर वो बैठना नही चाहता आगे चलते जाना उसे पसंद है।
इससे ये पता चलता है के, नाला सर खींचता है जब मेरा, शोर इक आसमाँ से उठता है। ये सारा शोर आसमाँ से उठता है जब फरियाद लेके कोई आता है। इश्क की दास्तां क्या खुब लिखी है मीर साहब ने। ये गज़ल वाकई काबिले तारीफ है।