तेरे हाथों की लकिरें बताना भुल गयी
मेरे साथ तेरा नाता पुराना हैं
कुछ बाते कहने की नहीं
समझने की भी होती हैं
सरगर्मी की वो धुप
और तेरे माथे का पसीना
मुझे याद दिलाता रहा
फिसलते हुए क़दमों का बोझ.
पिछले साल की गर्मी मुझे
बहुत कुछ ठंडक दिला गयी
शायद तुम मेरे साथ थी
और हाथों को जकड के रक्खा था.
आज सूरज की किरने
चुभते हुए काँटों की तरह लगती हैं
शायद वो भी जानती हैं
बहुत कुछ बदला हुआ हैं
आज भी याद करता हूँ
जिन्दगी के वो हसीं पल
डूबता हुआ सूरज भी
माथे का सिंदूर बनकर बैठा है.