बुझ गए उम्मीद के चराग
सपनों की लौ बुझ गयी
आशाओं के फूल कुम्हला गए
उसके दूर चले जाने से.
तमन्ना बड़ी देर से मचली थी
मिलने की आस यूँ ही निकली थी
बह गयी सारी यादें
आसुओंकी तूफानी बाढ़ से.
डूबती नैय्या जीवन की
संकट की घडी अमावस की
दूर गूंजती हुयी शहनाई
मलती है रक्त का अबीर.
सहमी हुए रातों में
थके हारे बोझल हाथों में
सन्नाटेपन की सरसराहट
नियतीने भी दिया धोखा.
जीवन अब समाप्त हो गया
यादों के मेले कबके खत्म हुए
अकेला रह गया है शायद नसीब
दोष दे तो देभी किसें.
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
जानवर
मै गर्दन झुकाए खड़ा हूँ
आदमी होने का इम्तेहान देते
किसी वहशी लुटेरे जानवर की तरह
अपने अन्दर की इंसान को मारकर.
बदशक्ल, बेसुरत अवस्था में
ना कोई पहचनता है मुझको
भेड़ियों की तरह मैं रौंदता हूँ
अपनी यादों की कुदरत को.
ना मेरा कोई रिश्ता है
ना मै किसीका रिश्तेदार
मै बस एक ही अस्त्र लिए खड़ा हूँ
तन्हाईयों की भीड़ में खड़े उस अनजान के लिए.
क्या कुसूर है उसका
क्या उसने सिर्फ मेरी यादों के
दीवारों को टटोला था
सिर्फ इसकी सजा उसे क्यों?
मै उस चिता की तरह
सिर्फ इतना ही जानता हूँ
मुझे सिर्फ जलाना है
आदमी के अन्दर के गुरुर को
आदमी होने का इम्तेहान देते
किसी वहशी लुटेरे जानवर की तरह
अपने अन्दर की इंसान को मारकर.
बदशक्ल, बेसुरत अवस्था में
ना कोई पहचनता है मुझको
भेड़ियों की तरह मैं रौंदता हूँ
अपनी यादों की कुदरत को.
ना मेरा कोई रिश्ता है
ना मै किसीका रिश्तेदार
मै बस एक ही अस्त्र लिए खड़ा हूँ
तन्हाईयों की भीड़ में खड़े उस अनजान के लिए.
क्या कुसूर है उसका
क्या उसने सिर्फ मेरी यादों के
दीवारों को टटोला था
सिर्फ इसकी सजा उसे क्यों?
मै उस चिता की तरह
सिर्फ इतना ही जानता हूँ
मुझे सिर्फ जलाना है
आदमी के अन्दर के गुरुर को
रविवार, 21 नवंबर 2010
तुम
कितने दिनों के बाद मिली हो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
अजीब चेहरों से उलझे हुए
सवालों के सायें से लिपटे हुए
अनगिनत नजरों को तुम
अपनीसी लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
हसीं पलों में हर एक चाहता था
उन लम्हों की तुम साजदार बनो
अपनी खुबसूरत सी हसी बिखेरकर
सब को आबाद करो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
परेशानी किसको नहीं होती?
लेकिन तुम्हारी जुल्फों के साए में
चमकती धुप भी
छाँव की तरह लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
जिन्दगी के मायने बदल गए है
जीने के अंदाज़ भी कुछ अलग लगते है
इस हैरान सी वीरानी में
एक साथ भी जरुरी है
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
अजीब चेहरों से उलझे हुए
सवालों के सायें से लिपटे हुए
अनगिनत नजरों को तुम
अपनीसी लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
हसीं पलों में हर एक चाहता था
उन लम्हों की तुम साजदार बनो
अपनी खुबसूरत सी हसी बिखेरकर
सब को आबाद करो
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
परेशानी किसको नहीं होती?
लेकिन तुम्हारी जुल्फों के साए में
चमकती धुप भी
छाँव की तरह लगती थी
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
जिन्दगी के मायने बदल गए है
जीने के अंदाज़ भी कुछ अलग लगते है
इस हैरान सी वीरानी में
एक साथ भी जरुरी है
क्या अब भी तुम वैसी ही हो?
शनिवार, 20 नवंबर 2010
भावना
तेरे हाथों की मेहदी देख
मेरे हाथ उठते हैं दुआ के लिए.
मुझे याद हैं वो सर्द भरी शाम
जब पहली बार तुमने
मुड के देखा था मुझे
तुम्हारी वो जादूभरी हसी से
मै सिकुड़ सा गया बिलकुल
कम्बल में खामोश पांवों की तरह.
बरसाती दिनों में हम
जब भीगे थे एकसाथ
तुम्हारी आँचल से गिरता हुआ पानी
मेरे तनबदन को कांपती हुई रूह की तरह
सर से लेके पाँव तक एक निशब्द गहरी सांस.
मचलती धूप में जब तुम निकलती थी
किरणों के साथ हमारी बदन की तपिश
बिस्तर पे पड़ा हुआ प्यासा मन
सब एक दहलती हुई आग की तरह
अंगारों की राख को टटोलता हुआ.
अब भूलना चाहता हूँ वो सारे पल
सीप से निकला हुआ मोती बनके
उसके सेज पे सजाना चाहता हूँ
उसके पीले बदन और हाथों की हिना
मेरे कर्मों का फल समझकर
मै चुप रहूँगा तेरे यादों की तन्हाई में.
मेरे हाथ उठते हैं दुआ के लिए.
मुझे याद हैं वो सर्द भरी शाम
जब पहली बार तुमने
मुड के देखा था मुझे
तुम्हारी वो जादूभरी हसी से
मै सिकुड़ सा गया बिलकुल
कम्बल में खामोश पांवों की तरह.
बरसाती दिनों में हम
जब भीगे थे एकसाथ
तुम्हारी आँचल से गिरता हुआ पानी
मेरे तनबदन को कांपती हुई रूह की तरह
सर से लेके पाँव तक एक निशब्द गहरी सांस.
मचलती धूप में जब तुम निकलती थी
किरणों के साथ हमारी बदन की तपिश
बिस्तर पे पड़ा हुआ प्यासा मन
सब एक दहलती हुई आग की तरह
अंगारों की राख को टटोलता हुआ.
अब भूलना चाहता हूँ वो सारे पल
सीप से निकला हुआ मोती बनके
उसके सेज पे सजाना चाहता हूँ
उसके पीले बदन और हाथों की हिना
मेरे कर्मों का फल समझकर
मै चुप रहूँगा तेरे यादों की तन्हाई में.
शनिवार, 13 नवंबर 2010
खालीपन
खालीपन बहुत सताता है
इस दौडती हुई दुनिया में
परेशानी देखी जा सकती है
हर एक के चेहरे पे.
बड़ी उदासी उन अँधेरी कोठरी में
मानो हंस रही हैं अपने आप पर
मन का आइना भी काले पत्थर की तरह
किसी अंजान पहाड़ का एक हिस्सा.
जीवन एक संगरहित पथ
दीवारें भी चुपचाप अकेली
अपना मानस भीतर व्यस्तता में मगन
सांसों के बिच द्वन्द का दहन.
ना कोई गतिविधि
हर जगह एकाकीपन
धरती के चारो खुंट
सारी ओर से जकड़े हुए.
ना कोई जीवनसाथी
हाथ में हाथ पकडे चलता
थक गए हैं सारे नयन
सपनों के सुनसान जंगल में.
इस दौडती हुई दुनिया में
परेशानी देखी जा सकती है
हर एक के चेहरे पे.
बड़ी उदासी उन अँधेरी कोठरी में
मानो हंस रही हैं अपने आप पर
मन का आइना भी काले पत्थर की तरह
किसी अंजान पहाड़ का एक हिस्सा.
जीवन एक संगरहित पथ
दीवारें भी चुपचाप अकेली
अपना मानस भीतर व्यस्तता में मगन
सांसों के बिच द्वन्द का दहन.
ना कोई गतिविधि
हर जगह एकाकीपन
धरती के चारो खुंट
सारी ओर से जकड़े हुए.
ना कोई जीवनसाथी
हाथ में हाथ पकडे चलता
थक गए हैं सारे नयन
सपनों के सुनसान जंगल में.
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
नदी के पार
नदी के उस पार खड़ी है,
निश्चल, निशब्द जिन्दगी
नंगे बदन पे ढका हुआ
मांसल, प्रौढ़ शरीर.
रेत पर लिखता हुआ
अपने जीवन का सफ़र
छूता हुआ अपने हाथ से
काले, निर्मम लकीरों को.
अनगिनत फूल के पदचिन्ह
मिटाए नहीं जाते
जल से भरे हुए
मृदुल नहाये हुए कदम
कोई उड़ के आएगा
मिटा देगा हस्तियाँ
जलाये हुए राखसे,
निकालेगा अस्थियाँ.
निश्चल, निशब्द जिन्दगी
नंगे बदन पे ढका हुआ
मांसल, प्रौढ़ शरीर.
रेत पर लिखता हुआ
अपने जीवन का सफ़र
छूता हुआ अपने हाथ से
काले, निर्मम लकीरों को.
अनगिनत फूल के पदचिन्ह
मिटाए नहीं जाते
जल से भरे हुए
मृदुल नहाये हुए कदम
कोई उड़ के आएगा
मिटा देगा हस्तियाँ
जलाये हुए राखसे,
निकालेगा अस्थियाँ.
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
जिंदगी
कहीं फासलों से गुजरती हुई जिन्दगी
क़दमों के निशान छोड़ जाती है
अँधेरे में चमकते हुए तारों की तरह
आती जाती रहती है.
तन्हाईयाँ पुकारती है
शहनाईयों की तरह
दिल के क़दमों की आवाज़ आती है
छन छन करती पायल की तरह.
वादियाँ अलग सी लगती है
नदियाँ गीत गाती है
भंवरें भी गुनगुनाते है
दिलरुबा लगती है ये जमीन.
तेरी गर्म बाहें
तेरी नर्म सांसे
जान मेरी यूं लेती है,
जैसे चुराकर कोई नींद.
क़दमों के निशान छोड़ जाती है
अँधेरे में चमकते हुए तारों की तरह
आती जाती रहती है.
तन्हाईयाँ पुकारती है
शहनाईयों की तरह
दिल के क़दमों की आवाज़ आती है
छन छन करती पायल की तरह.
वादियाँ अलग सी लगती है
नदियाँ गीत गाती है
भंवरें भी गुनगुनाते है
दिलरुबा लगती है ये जमीन.
तेरी गर्म बाहें
तेरी नर्म सांसे
जान मेरी यूं लेती है,
जैसे चुराकर कोई नींद.
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
छोरी
गाँव की वो अल्ल्हड़ सी छोरी,
दुनिया की परेशानियों से दूर,
कितना सुकुं हैं उसके चेहरे पे,
शायद इस घिनौनी दुनिया से लापता.
उसके मन का भोलापन,
बिखरे बाल बाँवरे नयन,
जिन्दगी के भागदौड से कितनी दुर,
शुद्ध निर्मल जल की तरह.
घर के आँगन में बसे पेड़ की छाँव,
सुबह की धुप और वो महक,
बारिश की वो पहली बुंद,
बरसती धाराओं की तरह हसी.
गाँव आज अलग पड़ गए है,
रौनक आज फिकि पड़ गयी है ,
लेकिन फिर भी उसका होना जिन्दगी की निशानी हैं,
जैसे हरेभरे पेड़ों की शाखाएं फिर से उभर आई हो.
दुनिया की परेशानियों से दूर,
कितना सुकुं हैं उसके चेहरे पे,
शायद इस घिनौनी दुनिया से लापता.
उसके मन का भोलापन,
बिखरे बाल बाँवरे नयन,
जिन्दगी के भागदौड से कितनी दुर,
शुद्ध निर्मल जल की तरह.
घर के आँगन में बसे पेड़ की छाँव,
सुबह की धुप और वो महक,
बारिश की वो पहली बुंद,
बरसती धाराओं की तरह हसी.
गाँव आज अलग पड़ गए है,
रौनक आज फिकि पड़ गयी है ,
लेकिन फिर भी उसका होना जिन्दगी की निशानी हैं,
जैसे हरेभरे पेड़ों की शाखाएं फिर से उभर आई हो.
गुरुवार, 4 नवंबर 2010
बचपन
बचपन के वो दिन याद आते है,
जब संग खेले थे अपने साथियों के साथ,
बहुत शोर मचाया था और डांट भी खायी थी.
गिल्ली, डंडा लेके जब गांव के बाहर,
आम के पेड़ के निचे बैठ के खाए थे,
माँ ने दि हुयी रोटी और बेसन,
जब भी वो देखता हूँ तो माँ की याद आती है.
वीरानसी पड़ी हुई हवेली,
भुत प्रेत की वो अजब कहानियां,
डरावनी लगती थी वो सड़कें,
जब गुजरते थे हम उस तरफसे.
गुड, बेर, मुली, गाजर क्या नहीं था लाया,
जमींदार के खेत से चुपके से जाकर,
आज भी वो सब याद आता हैं,
मानो शहर एक जमींदार सा लगता है.
गांव के पास से बहती हुई नदी,
झरनों से गुन गुन करती कोयल,
कितना सुहावना था मौसम,
आँगन भी लगता था श्याम जी का गोकुल.
आज अपने घर के बाहर जब मै देखता हूँ
बचपन के वो सारा मंजर नजर आते है,
दिवाली की वो रात मेरा गांव कितना जगमगाता था,
हाँ कुछ जरुर शान कम हुई हैं लेकिन आनंद वही हैं.
जब संग खेले थे अपने साथियों के साथ,
बहुत शोर मचाया था और डांट भी खायी थी.
गिल्ली, डंडा लेके जब गांव के बाहर,
आम के पेड़ के निचे बैठ के खाए थे,
माँ ने दि हुयी रोटी और बेसन,
जब भी वो देखता हूँ तो माँ की याद आती है.
वीरानसी पड़ी हुई हवेली,
भुत प्रेत की वो अजब कहानियां,
डरावनी लगती थी वो सड़कें,
जब गुजरते थे हम उस तरफसे.
गुड, बेर, मुली, गाजर क्या नहीं था लाया,
जमींदार के खेत से चुपके से जाकर,
आज भी वो सब याद आता हैं,
मानो शहर एक जमींदार सा लगता है.
गांव के पास से बहती हुई नदी,
झरनों से गुन गुन करती कोयल,
कितना सुहावना था मौसम,
आँगन भी लगता था श्याम जी का गोकुल.
आज अपने घर के बाहर जब मै देखता हूँ
बचपन के वो सारा मंजर नजर आते है,
दिवाली की वो रात मेरा गांव कितना जगमगाता था,
हाँ कुछ जरुर शान कम हुई हैं लेकिन आनंद वही हैं.
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
जश्न
अँधेरे में वो जगमगाता शहर मुझे अजीब सा लगता है,
फटे पुराने कपड़ों में लपेटा हुआ नया दुपट्टा सा लगता है.
सारे शहर में जिस तरह रात भर जश्न चल रहा है,
लगता तो ऐसा है के सारे तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ है,
क्या वास्तविकता से परे होकर हम जी रहें है,
क्या आज भी सभी तरफ उजियारा है?
नए दीप जलाते तो है, लेकिन मन का अँधियारा नहीं मिट पाया,
जगमगाते हुए शहरों का सुनापन अब भी उसी तरह है,
कितने घर अब भी चिराग के लिए सुलग रहें है,
ना जाने कितनों के तन अब भी ठन्डे पड़े हैं.
खुशियाँ की सौगात तो आई है, लेकिन जरा उधर भी देखो,
उन अनगिनत विवस्त्र पड़े हुए बच्चों की तरफ,
जो बिना माँ बाप के रेल की पटरी को अपना घर समझते है,
उनकी भी खुशियाँ बाटों फिर देखो सही मायने में जिन्दगी.
फटे पुराने कपड़ों में लपेटा हुआ नया दुपट्टा सा लगता है.
सारे शहर में जिस तरह रात भर जश्न चल रहा है,
लगता तो ऐसा है के सारे तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ है,
क्या वास्तविकता से परे होकर हम जी रहें है,
क्या आज भी सभी तरफ उजियारा है?
नए दीप जलाते तो है, लेकिन मन का अँधियारा नहीं मिट पाया,
जगमगाते हुए शहरों का सुनापन अब भी उसी तरह है,
कितने घर अब भी चिराग के लिए सुलग रहें है,
ना जाने कितनों के तन अब भी ठन्डे पड़े हैं.
खुशियाँ की सौगात तो आई है, लेकिन जरा उधर भी देखो,
उन अनगिनत विवस्त्र पड़े हुए बच्चों की तरफ,
जो बिना माँ बाप के रेल की पटरी को अपना घर समझते है,
उनकी भी खुशियाँ बाटों फिर देखो सही मायने में जिन्दगी.
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