शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

छोरी

गाँव की वो अल्ल्हड़ सी छोरी,
दुनिया की परेशानियों से दूर,
कितना सुकुं हैं उसके चेहरे पे,
शायद इस घिनौनी दुनिया से लापता.

उसके मन का भोलापन,
बिखरे बाल बाँवरे नयन,
जिन्दगी के भागदौड से कितनी दुर,
शुद्ध निर्मल जल की तरह.

घर के आँगन में बसे पेड़ की छाँव,
सुबह की धुप और वो महक,
बारिश की वो पहली बुंद,
बरसती धाराओं की तरह हसी.

गाँव आज अलग पड़ गए है,
रौनक आज फिकि पड़ गयी है ,
लेकिन फिर भी उसका होना जिन्दगी की निशानी हैं,
जैसे हरेभरे पेड़ों की शाखाएं फिर से उभर आई हो.

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