बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

शरमिन्दगी

आँख मुंद के जो होते हुए देखे हैं,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

जब किसी मां बहन की आबरू
लुट जाती हैं सरे बाजार,
हजारों नजरे देखती रह जाती हैं
सब होते हुए लाचार.
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

इक तरफ हैं अनाज की किल्लत,
दूसरी तरफ बहती दूध की नदियाँ,
बुंद बुंद प्यास को तरसी ममता,
सबको पता हैं लेकिन कोई नहीं जानता,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

रहते हैं आज भी कई झोपड़ों में,
कई को रहने आलिशान मकान,
रात की नींद भी लेना जहाँ हो चैन,
भगवान की चरनों में करोड़ों की देन,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.

आज भी आदमी न बन पाए,
जानवर के साथ श्रुष्टि को भी सताएं,
धर्म के नाम पर करे फसाद,
खुद की ख़ुशी के लिए करे देश बर्बाद,
तब मेरी नजर शर्म से झुक जाती हैं.