अँधेरे में वो जगमगाता शहर मुझे अजीब सा लगता है,
फटे पुराने कपड़ों में लपेटा हुआ नया दुपट्टा सा लगता है.
सारे शहर में जिस तरह रात भर जश्न चल रहा है,
लगता तो ऐसा है के सारे तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ है,
क्या वास्तविकता से परे होकर हम जी रहें है,
क्या आज भी सभी तरफ उजियारा है?
नए दीप जलाते तो है, लेकिन मन का अँधियारा नहीं मिट पाया,
जगमगाते हुए शहरों का सुनापन अब भी उसी तरह है,
कितने घर अब भी चिराग के लिए सुलग रहें है,
ना जाने कितनों के तन अब भी ठन्डे पड़े हैं.
खुशियाँ की सौगात तो आई है, लेकिन जरा उधर भी देखो,
उन अनगिनत विवस्त्र पड़े हुए बच्चों की तरफ,
जो बिना माँ बाप के रेल की पटरी को अपना घर समझते है,
उनकी भी खुशियाँ बाटों फिर देखो सही मायने में जिन्दगी.
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
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