शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

जानवर

मै गर्दन झुकाए खड़ा हूँ
आदमी होने का इम्तेहान देते
किसी वहशी लुटेरे जानवर की तरह
अपने अन्दर की इंसान को मारकर.

बदशक्ल, बेसुरत अवस्था में
ना कोई पहचनता है मुझको
भेड़ियों की तरह मैं रौंदता हूँ
अपनी यादों की कुदरत को.

ना मेरा कोई रिश्ता है
ना मै किसीका रिश्तेदार
मै बस एक ही अस्त्र लिए खड़ा हूँ
तन्हाईयों की भीड़ में खड़े उस अनजान के लिए.

क्या कुसूर है उसका
क्या उसने सिर्फ मेरी यादों के
दीवारों को टटोला था
सिर्फ इसकी सजा उसे क्यों?

मै उस चिता की तरह
सिर्फ इतना ही जानता हूँ
मुझे सिर्फ जलाना है
आदमी के अन्दर के गुरुर को