नदी के उस पार खड़ी है,
निश्चल, निशब्द जिन्दगी
नंगे बदन पे ढका हुआ
मांसल, प्रौढ़ शरीर.
रेत पर लिखता हुआ
अपने जीवन का सफ़र
छूता हुआ अपने हाथ से
काले, निर्मम लकीरों को.
अनगिनत फूल के पदचिन्ह
मिटाए नहीं जाते
जल से भरे हुए
मृदुल नहाये हुए कदम
कोई उड़ के आएगा
मिटा देगा हस्तियाँ
जलाये हुए राखसे,
निकालेगा अस्थियाँ.
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
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