शनिवार, 20 नवंबर 2010

भावना

तेरे हाथों की मेहदी देख
मेरे हाथ उठते हैं दुआ के लिए.

मुझे याद हैं वो सर्द भरी शाम
जब पहली बार तुमने
मुड के देखा था मुझे
तुम्हारी वो जादूभरी हसी से
मै सिकुड़ सा गया बिलकुल
कम्बल में खामोश पांवों की तरह.

बरसाती दिनों में हम
जब भीगे थे एकसाथ
तुम्हारी आँचल से गिरता हुआ पानी
मेरे तनबदन को कांपती हुई रूह की तरह
सर से लेके पाँव तक एक निशब्द गहरी सांस.

मचलती धूप में जब तुम निकलती थी
किरणों के साथ हमारी बदन की तपिश
बिस्तर पे पड़ा हुआ प्यासा मन
सब एक दहलती हुई आग की तरह
अंगारों की राख को टटोलता हुआ.

अब भूलना चाहता हूँ वो सारे पल
सीप से निकला हुआ मोती बनके
उसके सेज पे सजाना चाहता हूँ
उसके पीले बदन और हाथों की हिना
मेरे कर्मों का फल समझकर
मै चुप रहूँगा तेरे यादों की तन्हाई में.