मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

अँधेरा

अँधेरे से यूँ डर लगता हैं,
कहीं खो न जाऊं उन कालकोठरी में.

कितना अजीबसा लगता हैं ,
जो सूरज की चमकती हुयी,
धुप से भी न घबराता था,
आज लगता हैं उन्ही में सिमट न जाऊं मैं.

रात कांटने को दौडती हैं,
टिमटिमाते तारे भी अब मुझे नजर नहीं आते,
सन्नाटे भी अब चिरके निकलते हैं मुझसे,
चन्द्रमा की शीतल छाँव गर्मी को हैं जगाती.

दूर तलक कोई दीप नजर नहीं आता,
रास्ते भी अब सुनसान से नजर आते हैं,
जैसे ही यूँ अंधकार बढ़ता जाता हैं,
पैर खिसकते नजर आते हैं.

अँधेरे का भेद कौन पढता हैं,
उजालों के सच कौन मानता हैं,
सब झूठ हैं उसी पंछी की तरह,
पिंजरे से उड़कर वापस लौटने की तरह.

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