बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

रिश्तें

कुछ रिश्तों को गन्दी नजरों से देखा जाता हैं,
क्या वो कानून अब भी अँधा बना हुआ हैं?

जात पात से परे होकर हम आगे तो जा रहें हैं,
लेकिन अभी भी मा बहनों को देखने का नजरिया वही हैं,
क्यों उनके दर्द हम पहचान नहीं पाते हैं?,
क्यों उनकी भावना हम समझ नहीं पाते हैं?

क्या अभी भी वो एक खिलौना हैं,
हमारी जिन्दगी को खुश रखने का?
क्या उन्हें अपना हक़ दिलाने में,
हमारी असल में कसौटी हैं?

सच तो ये हैं के हम ही उनके रास्ते के कांटे हैं,
हम खुद नहीं चाहते के वो आगे आयें,
हम भी वही सामंतवादी प्रतिष्ठा के रक्षक हैं,
जो खुद नहीं चाहते कोई भी हमसे आगे जाएँ.

जब तक हम उन्हें अपना अधिकार नहीं बाटेंगे,
हम उन्हें सही मायने में अपना हमसफ़र नहीं बनायेंगे,
हमें कोई अधिकार नहीं उन्हें गूंगी गुड़ियाँ बनाने का,
उन्हें पल पल यातना दिलाने का.

सोचा था ये पुरुष प्रजाति नहीं देगी ,
तो कानून तो दिलाएगा उन्हें अधिकार,
अपने आँखों पे लगी काली पट्टी उसने हटाई नहीं हैं,
कानून भी पुरुषों ने ही बनाया होगा?

गंदे शब्द कितनी भी कहें होंगे,
काले धब्बे कितने ही लगाने की कोशिश की होगी,
वो आज भी गंगा की तरह पवित्र हैं,
जरुरत हैं उसका जल ऐसे विकृतियों को पिलाने का.

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